Tag Archives: करुण रस

कहीं ट्रेन जली फ़िर घर जले

(कहीं तो कुछ बूरा हुआ – न तो ट्रेन को जलना था, न ही तो घरों को. नतीजन फ़ायदा तो दोनों के सौदागरों ने उठाया है.) कहीं ट्रेन जली फ़िर घर जले कितने इन्साँ मर जले ग़म इतना है उपरवाले … पढना जारी रखे

हिन्दुस्तानी (हिन्दी-उर्दू मिश्र), ગીતો, Homesickness, દેશચિંતન અને સંસ્કૃતિચિંતન में प्रकाशित किया गया | Tagged , , | टिप्पणी करे

दोनों चले गये – करुण रस

(लिखा तारीख: अप्रैल ०७, १९९४) जलती होली की राख पर दोनों चले गये काँटो भरी वह शाख पर दोनों चले गये बजता रहा मुहब्बत का मल्हार दिलरूबा पर जलते हुए बैसाख पर दोनों चले गये राहे वफ़ा गुज़रती थी कोह-ओ-जंगल … पढना जारी रखे

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